जरूरी है सीआरपीसी में संशोधन

      सीआरपीसी में संशोधन को लेकर राजस्थान प्रदेश में हंगामा हुआ और लोकसेवकों के नाम पर खुद की छवि को बचाने के लिए सरकार ने एक प्रयास किया लेकिन एक प्रयास कातिलों को सींखचों में पहुँचाने और पीड़ितों को न्याय दिलाने का भी होना चाहिए। अलवर जिले में पिछले दिनों करीब एक दर्जन ऐसे मामले सामने आये हैं जिनमें घटनाओं को कई साल बीत जाने के बाद दुबारा जांच हुई और कातिल ना केवल पकड़े गये.. सलाखों के पीछे भी पहुँचे।
कानून में हर जुर्म की सजा है …. फिर चाहे जुर्म छोटा हो या बड़ा, आरोपी के खिलाफ जुर्म प्रमाणित करना पुलिस एजेन्सी का काम है और अपराधी को सजा देने का काम है न्यायालय का…. न्यायालय मानता है कि दोषी बच भी जाये तो एक बार स्वीकार किया जा सकता है लेकिन निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। पर कई बार दोषी का बच जाना ज्यादा खतरनाक होता है और पुलिस एजेन्सी की लापरवाही इसके लिए जिम्मेदार ठहरती है। अलवर में करीब एक दर्जन ऐसे मामले जिनमें पुलिस ने या तो जांच ही नहीं की और जांच की तो मामले में एफआर लगा फाइल बंद कर दी। ये मामले मारपीट या आरोप के नहीं थे बल्कि कत्ल के थे.. जिसमें अपनों के द्वारा अपने ही कत्ल कर दिये गये थे या फिर अवैध सम्बन्धों ने जान ली और घटना को दुर्घटना का रूप दे दिया गया। 

अलवर में सामने आये ऐसे कुछ मामलों पर आप नजर डाले –

16 नवम्बर 2012 को बाला किला के पास एक बालिका का शव मिला जिसको पुलिस ने अज्ञात मानते हुए अंतिम अन्तिम संस्कार करा दिया।  पुलिस की और से मर्ग संख्या 35-12 में  इसे अप्राकृतिक मौत माना गया। लेकिन शव की पहचान कराने में भी सफलता नहीं मिली। दरअसल ये शव 15 वर्षीय धोली का था जो मन्दबुद्धि थी और अपने ही पिता और दादा के द्वारा कत्ल की गई और शव को फेंक दिया गया। फरवरी 2017 में धारा 156(3) के तहत मृतका की ताई ने (एफआईआर-71-17) मामला दर्ज कराया और घटना के चार साल बाद पुलिस ने पिता और दादा को दोषी मानते हुए गिरफ्तार कर जेल भेज दिया।

14-15 मार्च 2016 की रात्री रेलवे फाटक के पास सैनपुरी गांव निवासी राजेन्द्र की लाश मिली जिसमें पुलिस ने दुर्घटना मानते हुए मर्ग दर्ज किया। लेकिन मृतक के पिता ने इस्तगासे से हत्या का मुकदमा (एफआईआर 221-16) दर्ज कराया फिर पुलिस ने जांच में एफआर लगा दी। परिवादी द्वारा एसपी से गुहार के बाद दुबाारा जांच के आदेश हुए, अब जांच अधिकारी बदल चुके थे और जांच में चौंकाने वाले तथ्य सामने आये, मृतक की पत्नी के जीजा से अवैध सम्बन्ध थे और जीजा ने साथी के साथ मिलकर हत्या की , दोनों को गिरफ्तार कर जेल भेजा जा चुका है। 

29 जुलाई 2016 को सिरमौली की पहाड़ी में एक शव मिला और शिनाख्त नहीं होने से अज्ञात में नगर परिषद की ओर से अंतिम संस्कार करा दिया गया। एक साल बाद 2017 में मृतक की पहचान नांगल संतोकड़ा खैरथल निवासी मुन्ना गुर्जर के रूप में हुई। मुन्ना की हत्या सगे भाई राजेश फौजी ने सुपारी देकर कराई और दूसरे भाई महेन्द्र ने समीन मेव व दिनेश कंजर के साथ मिलकर हत्या की। मामले में हत्या का मुकदमा भी पुलिस की ओर से ही दर्ज किया गया। समीन और दिनेश जेल में हैं जबकि राजेश अभी फौज में नौकरी कर रहा है।

22 फरवरी 2013 को नारायणपुर थाना क्षेत्र के गढ़ी मामोड़ के जंगलों में एक महिला की लाश मिट्टी में दबी हुई मिली। मृतका के पति ने ससुराल जनों के खिलाफ दहेज हत्या का मामला दर्ज कराया और पुलिस ने लम्बी पूछताछ के बाद मामले में एफआर लगा दी। न्यायालय ने एफआर को वापस लौटाकर जांच करने को कहा। जांच अधिकारी बदला तो परिणाम भी बदल गय और साढ़े चार साल बाद मामला खुल गया। मृतका सीमा की हत्या पड़ोसी राजेश और भरतलाल ने की थी, हत्या से पहले दुष्कर्म का प्रयास भी हुआ था।

सबूतों को लेकर गंम्भीर नहीं जांच अधिकारी

ऐसे ही करीब एक दर्जन उदाहरण हैं जिनमें कई सालों बाद मामले खुले और आरोपी सलाखों के पीछे पहुँचे-

ये उदाहरण बताते हैं कि न्याय मिलने में ना केवल देरी हुई है बल्कि अपराधियों ने हत्या का भेद नहीं खुलने के कारण और हत्याओं को भी अंजाम दिया है। यहां पहले जांच कर रहे पुलिस जांच अधिकारियों पर सवालिया निशान है तो बाद में मामला खोलने वाले अधिकारी शाबासी के पात्र हैं लेकिन कई मामले पुलिस सुनवाई ना होने से धारा 156(3) के तहत दर्ज हुए और आजाद घूम रहे हत्यारे सजा पा रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि सभी मामलों में हत्यारों ने सजा पाई बल्कि अलवर जिले में ही हत्या के कई मामलों का आज तक खुलासा ना हुआ। बड़ी बात ये भी है कि पुलिस ने कई मामलों में या तो जांच ही नहीं की या फिर गलत जांच के कारण अपराधी गिरफ्त से दूर रहे।

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